गर्भाधान संस्कार क्यों जरुरी है जाने ...
नमस्कार मित्रो, आज हम गृह्यसुत्र मे वर्णित 16 संस्कारो मे प्रथम संस्कार- गर्भाधान संस्कार के विषय मे जानकारी प्राप्त करते है ।
भारतीय ऋषिमुनीओ ने मानव के पूरे जीवन को संस्कारों की परिधि में आवृत्त कर दिया था, अतः स्वभावतया ही जीवन का प्रारम्भ भी एक संस्कार का ही अवसर था। स्त्री पुरुष के सहवास से ही जनन होता है, यह जान कर उसे भी संस्कार बना दिया गया। 'गर्भाधानं प्रथमतः' यह प्रथम संस्कार है। यह संस्कार सबसे महत्वपूर्ण होता है। विवाह के बाद पति और पत्नी को मिलकर अपने भावी संतती के बारे में सोच विचार करना चाहिए। बच्चे के जन्म के पहले स्त्री और पुरुष को अपनी सेहत को और भी चंगा करना चाहिए। इसके बाद बताए गए नियमों, तिथि, नक्षत्र आदि के अनुसार ही बालक के जन्म हेतु समागम करना चाहिए। यह बहुत ही पवित्र कर्म होता है लेकिन यदि आप इसे कामवासना के अंतर्गत लेते हैं तो यह अच्छा नहीं है। और इस संस्कार के माध्यम से पति अपनी पत्नी में गर्भ स्थापित करता है। इस संस्कार को “निषेक अथवा चतुर्थीकर्म” भी कहा गया है। किन्तु वैखानस (धर्मसूत्र) ने निषेक और गर्भाधान को भिन्न भिन्न माना है।
'गर्भ: सन्धार्यते येन कर्मणा तद गर्भाधानमित्यनुगतार्थं कर्म नामधेयम’ इस संस्कार में पति एवं पत्नी उपवास, तथा विभिन्न यज्ञादि से शरीर एवं मन को पवित्र करते और फिर एक दूसरे में अनुरक्त मन से देवताओं का आवाहन करते हुए सन्तानोत्पादन में प्रवृत्त होते थे। वे दोनों अपनी सन्तति में जैसे गुणों और योग्यताओं की कामना करते थे, वैसा ही भिन्न भिन्न प्रकार का भोजन करते थे। गर्भाधान के समय पति-पत्नी के मन में जैसी भावना होती है, उस भावना से उनका वीर्य एवं रज भी प्रभावित होता है, और फलस्वरूप सन्तान उन्हीं भावो से सम्पन्न होती है।
“आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभिः समन्वितो ।
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः”॥ (सुश्रुत संहिता)
गर्भाधान संस्कार भली प्रकार सम्पन्न करने से गुणसम्पन्न और सुयोग्य सन्तान का जन्म होगा- ऐसी धारणा प्रचलित थी। स्मृति संग्रह में लिखा है कि यह संस्कार सुष्टुतया करने से वीर्य सम्बन्धी तथा गर्भ सम्बन्धी पाप का नाश हो जाता है, दोषों का मार्जन होता है और क्षेत्र का संस्कार होता है।
इस संस्कार के एक नाम 'चतुर्थीकर्म' से स्पष्ट होता है, तदनुसार ही विवाह के बाद जब स्त्री ऋतुमती हो तो उसके चौथे दिन (रात्रि) गर्भाधान संस्कार किया जाना चाहिए। अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टमी तथा एकादशी इस संस्कार के लिए निषिद्ध हैं। यह निषेध वैज्ञानिक दृष्टि से भी उपयुक्त है। सूर्य और चन्द्र की गतियों का सर्वाधिक प्रभाव जल पर पड़ता है और शरीर में रक्त भी उस प्रभाव से अछूता नहीं रहता। अत: इन निषिद्ध रात्रियों में गर्भाधान होने पर सन्तति में रक्तविकार, हृदय रोग, चर्म रोग आदि होते हैं। गर्भधारण के लिए केवल रात्रि का समय ही उपयुक्त था, दिन अथवा सांयकाल इसके लिए निषिद्ध थे। सांयकाल का समय इस संस्कार के लिए अत्यन्त दारुण एवं अशुभ माना जाता ।
गर्भधारण संस्कार के सम्बन्ध में महाभारत में पर्याप्त विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ में गर्भाधान के समय, विधि और फल का वर्णन प्राप्त होता है। सन्तति की इच्छा से धर्मपत्नी के साथ सहवास करना गृहस्थ का श्रेष्ठ धर्म है। ऋतुकाल में पत्नी की उपेक्षा करना अधर्म एवं पाप है। इस समय पत्नी सहवास से ब्रह्मचर्य नष्ट नहीं होता तथा वह गृहस्थ दीर्घायु होकर आनन्दित रहता है (अनुशासन पर्व) । सन्तति की कामना में ऋतुमती पत्नी के साथ चौथी रात्रि में सोलहवी रात्रि तक का समय सहवास के लिए शास्त्रों में भी कहा गया है । अनुशासन पर्व- अध्याय 104 मे कहा है अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टमी, चतुर्दशी और रविसंक्रान्ति ये तिथियाँ पर्वकाल हैं और पर्वकाल में स्त्रीप्रसंग करने से पाप लगता है । दिन के समय और रजोदर्शन के आरम्भ में तीन दिनों तक सहवास का सर्वथा निषेध किया गया है। धर्मपूर्वक काम के सेवन को सभी शास्त्रों में समर्थन मिला है। प्राणियों में धर्मानुकूल काम के रूप में स्वयं भगवान् ही अवस्थित रहते हैं। गीता में स्वयं श्रीकृष्णा ने यह उद्घोषणा की है “धर्माविरुद्धो भूतेष कामोऽस्मि भरतर्षभ”।
महाभारत के शान्तिपर्व में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा है कि गर्भाधान संस्कार धर्म, अर्थ और काम का हेतु है। धार्मिक एवं सदाचारी पुरुष यदि सत्पुत्र की इच्छा से शास्त्रोक्त मर्यादासहित पत्नी सहवास करे तो योनि- संस्कार रूप धर्म, पुत्र रूप अर्थ और सम्भोग रूप काम- इन तीनों का लाभ करता है ।
इस प्रकार सारे विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि गर्भाधान संस्कार आर्यों की पर्याप्त विचारपूर्वक स्थापित की गई जीवन प्रणाली का परिचायक है। परंतु कालक्रम में धीरे धीरे इस संस्कार का ह्रास होता गया और वर्तमान युग में वह लुप्त ही हो चुका है। आज भी माता पिता यह तो चाहते हैं कि उनकी सन्तान उत्तम गुण सम्पन्न हो किन्तु इसके लिए स्वयं माता-पिता में गर्भाधान से पूर्व जिस संयम, मर्यादा, तथा पवित्रता की अपेक्षा है, उसके लिए वे तत्पर नहीं है। विवाह के उपरान्त पति पत्नी अपने व्यवसाय करते हुए गृहस्थी बसाते हैं। उन्हें संस्कार बताने समझाने वाले पारिवारिक वृद्धजन पास होते नहीं। भौतिक सुख सुविधाओं की शीघ्र प्राप्ति की आपाधापी में पति-पत्नी के पास समय ही नहीं बचता कि वे इस संस्कार के रहस्य को जान कर आचरण करें। अतः अब यह आशा करना भी व्यर्थ है कि गर्भाधान संस्कार का पुनः प्रचलन हो पाएगा।\