16 Hindu samskara’s
नमस्कार मित्रों यहाँ पर आपको 16 संस्कारों के बारे में जानकारी प्राप्त हों अतः यहां पर संस्कार शब्द का अर्थ, संस्कार कौन कौन से हैं, संस्कारो का जीवन में महत्व, संस्कार करने का अधिकार किसे है, इन सभी विषयों की जानकारी प्रदान करेंगे ।
संस्कार शब्द का अर्थ (Meaning of Samskara)
सम उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से घञ् प्रत्यय जोड़ने पर संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। शास्त्रों तथा काव्यों में विभिन्न स्थलों पर इस संस्कार शब्द का प्रयोग अनेक भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है । जैसे की 1. ठीक करना; 2. सुधारना, 3 शुद्धि; 4 अलंकरण; 5. परिष्कार; 6. शरीर की सफाई; 7. मनोवृत्ति या स्वभाव का शोधन; 8. शिक्षा, उपदेश; 9. मानसिक शिक्षा; 10. पवित्र करना; 11. वे कृत्य जो जन्म से मरण तक द्विजातियों के लिए आवश्यक हैं। आदि।
जैमिनी के सूत्रों में संस्कार शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है- “संस्कारो नाम सः भवति यस्मिन् जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्य” अर्थात् संस्कार वह हैं जिसके हो जाने पर पदार्थ (या व्यक्ति) किसी कार्य के योग्य हो जाता है।
धीरे-धीरे शबर कथित अर्थ ही संस्कार शब्द के लिए रूढ़ हो गया। सामान्य रूप से संस्कार शब्द का अर्थ होता है सँवारना बगिया में कोई पौधा उगा, बेडौल हो जाए, इसलिए उसे काट छाँटकर सँवार देते है, पौधा पुष्ट हो जाए- इसके लिए खाद-पानी से सँवारते हैं। अच्छी तरह फूल फल आएँ, इसके उपाय करते हैं यह सारा उस पौधे का संस्कार हुआ। संस्कार किए जाने से जो योग्यता उत्पन्न होती है, वह दो प्रकार की होती है। एक तो संस्कार करने से शारीरिक और मानसिक दोष दूर हो जाते हैं दूसरे, जिस व्यक्ति का संस्कार किया जाता है उस व्यक्ति में विशिष्ट गुण स्थापित होते हैं ।
संसार में चारो ओर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि लगभग कोई भी ऐसी जड़ चेतन वस्तु नहीं है जो बिना संस्कार हुए मनुष्य के उपयोग में आती हो। उदाहरण के लिए हमारे भोजन के प्रमुख अंग-अन्न को ही लें। अन्न की महत्ता सभी जानते हैं। पर खेत में अन्न जिस रूप में पैदा होता है, उसी रूप में हम उसे नहीं खाते। अन्न छान बीनकर कंकड़-पत्थर निकाले जाते हैं यह सारा “मलापनयन” है। फिर अन्न को पीसकर आटा बनाया जाता है- पानी मिला कर आटा गूँथा जाता है- चकले पर उस आटे को बेला जाता है- आग पर गरम तवे पर रोटी डाल कर उसे सेंका जाता है। तब वह अन्न खाने योग्य होता है। यह “अतिशयाधान” है।
इन दो योग्यताओं के अतिरिक्त संस्कारों के करने से एक और योग्यता उत्पन्न होने का वर्णन मिलता है जिसे “हीनांगपूर्ति” अथवा न्यूनाउत्तम रूप से सम्पन्न होकर लाभदायक सिद्ध होगा।
इन तीनों योग्यताओं पर बल देने से धीरे धीरे भारत के जनजीवन में विभिन्न संस्कार एक अनिवार्य अनुष्ठान/कार्य बन गए। व्युत्पत्ति की दृष्टि से देखें तो संस्कृति और संस्कार- दोनों शब्दों का शाब्दिक अर्थ एक ही है किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो संस्कार साधन हैं और संस्कृति साध्य है। इसीलिए स्वामी दयानन्द ने शरीर, मन और आत्मा को उत्तम बना देने वाली क्रियाओं को संस्कार कहा है-
“येन शरीरं मन आत्मा चोत्तमा भवन्ति सः संस्कारः इत्युच्यते”। विभिन्न शास्त्रों में जो परिभाषाएँ प्राप्त होती है, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कार से व्यक्ति की बाह्य शुद्धि के साथ साथ आभ्यन्तर परिष्कार भी हो जाता है। इतना ही नहीं संस्कार व्यक्ति को विभिन्न क्रियाओं को करने की योग्यता भी प्रदान करता है जिससे मनुष्य विभिन्न पुरुषार्थों का पालन करके अपने जीवन को सार्थक बनाता है।
अशुद्धि दूर होकर योग्यता आ जाने को अनेक लौकिक उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है। स्वर्ण की शोभा और कान्ति से सभी सुपरिचित हैं और आभूषण के रूप में वह स्वर्ण और निखर आता है। मूलतः सोना खानों से पत्थर के रूप में निकलता है। भट्टियों में तपा कर, रसायन मिश्रित करके उन विशिष्ट पत्थरों से सारी गन्दगी दूर करके सोना निकलता है। उसि प्रकार हरेक मनुष्य के जीवनमे संस्कार होने से वह परिस्कृत हो जाता है सुसंस्कृत हो जाता है ।
संस्कारों का प्रयोजन (Purpose of samskara)
संस्कारों की योजना का मूलतः प्रयोजन क्या रहा होगा- यह कहना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि सुदूर अतीत के वे तथ्य क्रमशः कर्मकाण्ड, आडम्बर और अन्धविश्वासों के कुहासे में लुप्त हो चुके हैं। फिर भी वेदों से स्मृति साहित्य तक प्राप्त संस्कार परम्परा को जान कर संस्कारों के प्रयोजन निश्चित अवश्य किए जा सकते हैं। वस्तुतः संस्कार शब्द के अर्थ में उसका प्रयोजन भी निहित है। पहले कहा जा चुका है कि गृह्यसूत्रों में संस्कारों का विवेचन प्रायः विवाह संस्कार से प्रारम्भ हुआ है। संस्कार यों तो व्यक्ति का किया जाता था किन्तु संस्कार का सम्बन्ध उस व्यक्ति विशेष के साथ साथ सारे समाज से था। ये सारे संस्कार वैवाहिक जीवन के गुरुतर दायित्वों के प्रतीक भी थे। इसीलिए शास्त्रों में यह कहा गया कि 'जो माता-पिता अपनी सन्तान के संस्कार नहीं करते, वे जनक मात्र है तथा पशुसदृश हैं (जो काम तृप्ति के लिए सन्तान उत्पन्न कर देते है) “मनुस्मृति (2/26, 27)” में स्पष्ट कहा गया है कि 'गर्भाधान तथा अन्य संस्कारों की क्रियाएँ शरीर को शुद्ध करती है और इहलोक तथा परलोक में मनुष्य को पाप से विमुक्त कराती हैं। विशिष्ट संस्कारों के किए जाने से पुरुषवीर्य एवं स्त्रीरज के दोष दूर हो जाते हैं। व्याख्याकार मेघातिथि ने मनु के श्लोक की व्याख्या में “संस्कारों से केवल शरीर की ही शुद्धि नहीं अपितु आत्मा को भी संस्कृत माना”। क्योंकि शुद्ध शरीर में ही पावन आत्मा रहती है, अशुद्ध शरीर में नहीं। इस प्रकार मानव व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास ही संस्कारों का प्रयोजन है। चरित्र निर्माण का प्रथम बीज संस्कार से ही पड़ता है।
सोलह संस्कार (Sixteen Samskara)
परवर्ती निबन्धकारों ने संस्कार शब्द को शुद्धता के अर्थ में रुढ़ कर दिया और अधिकांशतया सोलह संस्कारों को मान्यता दी ।
1. गर्भाधान
2. पुंसवन
3. सीमन्तोन्नयन
4. जातकर्म
5. नामकरण
6. निष्क्रमण
7. अन्नप्राशन
8. चूडाकर्म
9. कर्णवेध
10. उपनयन
11. वेदारम्भ
12. समावर्तन
13. विवाह
14. गृहाश्रम
15. वानप्रस्थ
16. अन्त्येष्टि
प्रायः संस्कारों की संख्या के सम्बन्ध में एकमत नहीं प्राप्त होता।'हिन्दू संस्कार' में सारे संस्कारों को पाँच वर्गों में विभाजित किया है। इन सारे संस्कारों को करने का दायित्व किसका होता है, कौन संस्कारों को करने का अधिकारी है- इस दृष्टि से भी सारे संस्कारों को भिन्नतया विभाजित किया जा सकता है ।
कौन संस्कारों को करने का अधिकारी है ? (Who is entitled to perform the Sacraments ?)
1. गर्भाधान से कर्णवेध या विद्यारम्भ तक ये सारे संस्कार बालक के पिता (माता/पिता) सम्पन्न कराते हैं।
2. उपनयन: इस संस्कार को सम्पन्न तो आचार्य कराता है किन्तु इसमें माता-पिता की सहमति/अनुमति होती है।
3. वेदारम्भ तथा समावर्तन- इन दोनों संस्कारों को सम्पन्न कराने का दायित्व आचार्य / गुरु का होता है।
4. विवाह- इस संस्कार का दायित्व माता-पिता एवं सम्बद्ध व्यक्ति के साथ साथ सम्पूर्ण समाज का है।
5. अन्त्येष्टि व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर उसके सारे अन्तिम संस्कार का दायित्व व्यक्ति के पुत्र-पौत्रों (उत्तराधिकारियों) का होता है।
उप संहार
इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने मानव के पूरे जीवन को संस्कारों की परिधि में आवृत्त कर दिया था, अतः स्वभावतया ही जीवन का प्रारम्भ भी एक संस्कार का ही अवसर था। स्त्री पुरुष के सहवास से ही जनन होता है यह जान कर उसे भी संस्कार बना दिया गया। जो 'गर्भाधानं प्रथमतः' संस्कार है । इस प्रकार सभि 16 संस्कारो के विषय़ मे आगे विस्तृत चर्चा करेंगे अतः हामारे (Edutech) साथ जुडे रहें ।