निरुक्तशास्त्र का परिचय ।
EduTechsanskrit वेबसाइट में आपका स्वागत है। यहाँ पर हम बहुत ही महत्वपूर्ण विषय निरुक्त के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे । यह जानकारी शास्त्री (B.A.) एवं आचार्य (M.A) कक्षा के संस्कृत विषय के छात्रों को तो उपयोग होगी ही, परंतु जो छात्र NET/SLET इत्यादि परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं उनके लिए भी बहुत ही उपयोगी होगी। मित्रों यहां पर हमने निरुक्त का स्वरुप उनका महत्त्व, निरुक्तकारों का परिचय एवं टीकाओ के विषय में जानकारी प्रदान कि है।
निघण्टु परिचय
निघण्टु में पाँच अध्याय है। इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है । इसके आदि के तीन अध्यायों को
(1.) "नैघण्टुक-काण्ड"
चौथे अध्याय को
(2.) "नैगमकाण्ड" (ऐकपदिककाण्ड)
और अन्तिम पाँचवे अध्याय को
(3.) "देवतकाण्ड" कहा जाता है।
निघण्टु में वेद के कुल १७६७ शब्दों का संग्रह है। निघण्टु पर एक ही व्याख्या उपलब्ध होती है -"निघण्टु - निर्वचनम्" । इसके एकमात्र भाष्यकार देवराजयज्वा है, इसकी व्याख्या अतीव प्रामाणिक और उपादेय है। निघण्टु कर्ता के विषय मे आचार्यो मे मतभेद हैं। महाभारत के अनुसार मूल निघण्टु के कर्ता वृषाकपि नामक ऋषि थे ।
निरुक्त का परिचय
"निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।" निरुक्त का वेदाङ्गो में महनीय स्थान है। वैदिक मन्त्रों के सम्यगवबोध और अभीष्टार्थ-निर्धारण के लिए निरुक्त अत्यन्त उपयोगी है। निरक्त वैदिक शब्दकोश के रूप में सङ्कलित निघण्टु में पठित वैदिक पदों का व्याख्यान है। सम्प्रति उपलब्ध निरुक्त यास्ककृत है। इस निरुक्त का आधार ग्रन्थ निघण्टु है ।
वेद-पुरुष का श्रोत्र कहे जाने वाले निरुक्त के रचनाकार महर्षि यास्क हैं। वेदज्ञ विद्वानों का विचार है कि प्रजापति कश्यप ने वेद के अनेकार्थक एवं कतिपय विद्वाना का मत है कि प्रत्येक निरुक्तकार निघण्टु (वैदिक शब्दकोश) लिखकर उन पर भाष्य लिखते थे । अतः निघण्टु भी निरुक्त की श्रेणी में कहे जाते हैं। परन्तु निघण्टु और निरुक्त मे पर्याप्त अन्तर है। जहाँ निघण्टु वैदिक शब्दों का कोश मात्र है, वहीं निरुक्त उसका भाष्य है। आचार्य देवराजयज्वा ने स्वतन्त्र रूप से निघण्टु पर भाष्य किया था लेकिन उसकासमय यास्क के निरुक्त से भिन्न है। वर्तमान में महर्षि यास्क कृत निरुक्त ही प्राप्त एवं विद्वत् जनों में सर्वथा समादृत है।
निरुक्त का महत्त्व
व्याकरण कल्प और अन्य वेदाङ्गो की तुलना में निरुक्त अधिक महत्त्वपूर्ण है । व्याकरण से केवल शब्द का ज्ञान होता है और केवल मन्त्रों के विनियोग का ज्ञान होता है, किन्तु निरुक्त से शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है। अर्थ-ज्ञान के पश्चात् ही यज्ञों में मन्त्रों का विनियोग होता है। अर्थ-ज्ञान के पश्चात् शब्द-ज्ञान सरल हो जाता है। अतः हम देख सकते हैं कि निरूक्त अर्थ प्रधान है । जबकि व्याकरण इत्यादि शब्द प्रधान है।
निरुक्त का लक्षण
आचार्य सायण के अनुसार निरुक्त का लक्षण है:-"अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम् ।"
अर्थ:- अर्थ-ज्ञान के विषय में, जहाँ स्वतन्त्र रूप से पदसमूह का कथन किया गया है, वह "निरुक्त" कहलाता है। यास्क ने स्वयमेव निरुक्त और व्याकरण के सम्बन्ध को स्पष्ट किया है :-" तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कार्त्स्न्यम् । " (निरुक्तम्)
कार्त्स्न्यम् अर्थात पूरक, इससे ज्ञात होता है कि व्याकरण और निरुक्त का घनिष्ठ सम्बन्ध है । वस्तुतः यह समझना जरूरी है कि निरुक्त के ज्ञान के लिए व्याकरण का ज्ञान होना आवश्यक है। यास्क ने आचार्यों को (अध्यापकों को) सावधान किया है कि जिसे व्याकरण न आता हो, उसे निरुक्त न पढायें ।
निरुक्त के प्रतिपाद्य विषय
निरुक्त का प्रतिपाद्य विषय है; वैदिक शब्दों का निर्वचन । यह निरुक्ति पाँच प्रकार से होती है:-
"वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ ।
धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ॥
(1.) वर्णागम के द्वारा - शब्द के निर्वचन के समय यदि किसी अन्य वर्ण की आवश्यकता पडे तो उसे ले लेना चाहिए, मूल धातु में वह वर्ण न हो तो भी । जैसे कि वार-द्वार ।
(2.) वर्णविपर्यय के द्वारा –शब्द के निर्वचन में वर्गों को आगे या पीछे उद्देश्य के अनुसार परिवर्तन कर लेना चाहिए। जैसे- द्योतिष्- ज्योतिष् । कसिता-सिकता ।
(3.) वर्णविकार के द्वारा - मूल शब्दों के उच्चारण में परिवर्तन करके, जैसे -वच - उक्तः ।
(4.) वर्णनाश के द्वारा - मूल धातु में किसी वर्ण का लोप करके प्रयोग होताहै उसे वर्णनाश कहते है।
जैसे -- अस्-स्तः
दा--प्रत्तम्
गम्--गत्वा
राजन्--राजा
गम् -जग्मुः
याचामि-यामि ।
(5.) धातु का अर्थ बढा कर- धातु का उससे भिन्न अर्थ के साथ योग ।
यास्क कृत निरुक्त का स्वरूप
निरुक्त में कुल 14 अध्याय हैं । अन्तिम के दो अध्याय परिशिष्ट माने जाते हैं। निरुक्त के भी तीन विभाग किए गए हैं:-
(1.) नैघण्टुक-काण्ड
निरुक्त के भी प्रारम्भ के तीन अध्यायों को "नैघण्टुक-काण्ड" ही कहा जाता है। इसके प्रथम अध्याय में यास्क ने पद के चार भेद माने हैं-
नामाख्यतोऽपसर्गनिपाताश्च, नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । निरुक्त के द्वितीय और तृतीय अध्यायों में पर्यायवाची शब्दों का निर्वचन किया गया है।
(2.) नैगमकाण्ड
निरक्त के चौथे-पाँचवें अध्याय को 'नैगमकाण्ड' कहा जाता है । इसे 'ऐकपदिक' भी कहते हैं। इन अध्यायों में तीन प्रकार के शब्दों का निर्वचन हुआ है:-
(१) एक अर्थ में प्रयुक्त अनेक शब्द (पर्यायवाची शब्द),
(२) अनेक अर्थों में प्रयुक्त एक शब्द (अनेकार्थक शब्द),
(३) ऐसे शब्द, जिनकी व्युत्पत्ति (संस्कार) ज्ञात नहीं है (अनवगतसंस्कार शब्द)
(3.) दैवतकाण्ड
निरुक्त के सात से लेकर बारह अध्यायों को "दैवतकाण्ड" कहा जाता है । इस काण्ड में वेद में प्रधान रूप से स्तुति किए गए देवताओं का निर्वचन है।
निरुक्त में तीन प्रकार के देवता कहे गए हैं-
(१) अग्नि- पृथिवीस्थानीय देवता ।
(२) इन्द्र या वायु- अन्तरिक्षस्थानीय देवता- ।
(३) द्युस्थानीय देवता-सूर्य ।
(4) परिशिष्ट
निरुक्त के तेरहवें और चौदहवें अध्याय को परिशिष्ट माना जाता है। इनमें अग्नि की स्तुति और ब्रह्म की स्तुति है ।
निरुक्त का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है कि -"सर्वाणि नामानि आख्यातजानि।" सभी नाम शब्द धातुज हैं
निरुक्तकारों का परिचय
दुर्गाचार्य ने 14 निरुक्तकारों का उल्लेख किया है- निरुक्तं चतुर्दशप्रभेदनम् । निरुक्त में स्वयं यास्क ने 12 निरुक्तकारों का उल्लेख किया है:-
(1.) अग्रायण,
(2.) औपमन्यव,
(3.) औदुम्बरायण,
(4.) और्णवाभ,
(5.) कात्थक्य,
(6.) क्रौष्टुभि,
(7.) गार्ग्य,
(8.) गालव,
(9.) तैटीकि,
(10.) वार्ष्यायणि,
(11.) शाकपूणि,
(12.) स्थौलाष्ठीवि
तेरहवें निरुक्तकार स्वयम् आचार्य यास्क हैं । चौदहवाँ निरुक्तकार कौन है, इसका उल्लेख नहीं है।
निरुक्त के टीकाकार
(1.) दूर्गाचार्यः-
इन्होंने निरुक्त पर एक वृत्ति लिखी थी, जिसे दुर्गवृत्ति कहा जाता है। यह विद्वत्तापूर्ण और प्रामाणिक टीका है। इनके बारे में बहुत अल्प जानकारी मिलती है। ये कापिष्ठल शाखाध्यायी वसिष्ठगोत्री ब्राह्मण थे अनुमान के आधार पर ये गुजरात अथवा काश्मीर के वासी थे। इस वृत्ति की सबसे प्राचीन हस्तलिखित प्रति 1444 वि.सं. की है ।
(2.) स्कन्द महेश्वरः-
ये दुर्गाचार्य से प्राचीन टीकाकार हैं। इनकी टीका लाहौर से प्राप्त हुई है। यह टीका अतीव पाण्डित्यपूर्ण है। इन्होंने ऋग्वेद पर एक भाष्य लिखा था। ये गुजरात के वल्लभी के रहने वाले थे ।
वेदार्थ के अनुशीलन के आठ पक्ष-
(क) अधिदैवत
(ख) अध्यात्म
(ग) आख्यान-समय
(घ) ऐतिहासिकाः
(ङ) नैदानाः
(च) नैरुक्ताः
(छ) परिव्राजकाः
(ज) याज्ञिकाः
मित्रों आप ने निरुक्तशास्त्र के विषय में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कि । आशा रखता हूं आपको यह जानकारी पसंद आइ होगी । और यह पोस्ट आपको पसंद आए तो अन्य को शेयर जरूर कीजिए। और नियमित रूप से हमारी वेबसाइट के साथ जुड़े रहे, इससे शास्त्रों से संबंधित अन्य जानकारी भी आपको मिलती रहे। धन्यवाद...