नामकरण संस्कार कैसे करें जानें .. । Baby Namkaran vidhi
नामकरण संस्कार क्या है ।
गृह्यसूत्र में 16 संस्कार बताए गए हैं, जिनमें नामकरण संस्कार
पांचवां है। कुछ लोग इसे ‘पालनारोहन’
भी बोलते हैं। संस्कृत में ‘पालना’ का मतलब झूले और ‘रोहन’ का अर्थ बैठाने से होता
है। इस दौरान शिशु का नाम रखा जाता है। जन्म के बाद यह शिशु का दुसरा संस्कार होता
है। इससे पहले “जातक्रम संस्कार यह भी पढे ” भी होता है, लेकिन अब यह इतना प्रचलन
में नहीं है। यही कारण है कि माता-पिता, घर के अन्य सदस्यों व रिश्तेदारों के लिए नामकरण संस्कार
का दिन खास होता है। 16संस्कार के विषय में जाने...
परस्पर कठिनाई रहित व्यवहार करने के लिए भाषा विकसित हुई। उस भाषा में शीघ्र ही नाम की आवश्यकता हुई जिससे एक सी अनेक वस्तुओं को अलग अलग पहचाना जा सके; एक मनुष्य को दूसरे से भिन्न जानने में सरलता हो। मनुष्यों के जीवन तो नाम विशेषत: बहुत ही महत्वपूर्ण है। नाम से ही मनुष्य की पहचान बनती है और नाम के कारण ही मनुष्य एक जनसमूह में विशिष्ट बन पाता है। भारतीय मनीषियों ने नाम के इस विशिष्ट महत्व को बहुत शीघ्र समझ लिया था और इसीलिए क्रमश: नामकरण एक महत्वपूर्ण धार्मिक संस्कार बन गया।
वृहदारण्यक उपनिषद् (3/2/12) ने नाम की महत्ता को बहुत संक्षेप में और बहुत सुन्दर रूप में समझाया है- 'मरने के बाद मनुष्य को क्या नहीं छोड़ता ? – “नाम” । नाम से ही मनुष्य अनन्त लोकों को जीतता है।' सोच कर देखिए, नाम के बिना जीवन में कोई भी काम हो नहीं सकता; इस तथ्य से नामकरण संस्कार का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है। वीरमित्रोदय संस्कार प्रकाश मे बृहस्पति का कथन है
नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः शुभावहं कर्मसु भाग्यहेतु: ।
नाम्नैव कीर्तिं लभते मनुष्यस्ततः प्रशस्तं खलु नामहेतुः ॥
अर्थात् नाम ही सम्पूर्ण व्यवहार का हेतु
रूप है, सारे कार्यों में शुभ का आवाहन करता है और
भाग्य का कारण है। नाम से ही मनुष्य को कीर्ति प्राप्त होती है। इसलिए नामकरण
संस्कार अत्यन्त प्रशस्त है।
नामकरण का प्रभाव बालक के भावी जीवन पर
पड़ता है। मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में नाम की महती भूमिका होती है।
प्रारम्भिक रूप में जन्म के दिन ही शिशु का नाम रख दिया जाता था जो प्राय: “देवता, पिता, कुल, जाति, मास अथवा नक्षत्र” के नाम पर आधारित होता था। जातकर्म संस्कार में पिता शिशु के कान में नाम
का उच्चारण करता ही था। किन्तु जैसे जैसे संस्कारों का विकास होता गया तो धार्मिक
विधि विधान और कर्मकाण्ड के बढ़ते जाने पर उस प्रथम नाम के अतिरिक्त एक और शोभन
तथा व्यावहारिक नाम रखा जाने लगा और जातकर्म संस्कार वाले नाम को गुप्त मान लिया गया। फिर भी प्रारम्भके दिनों में
इस संस्कार में कोई विधि विधान नहीं था, या तो यों कहें कि शास्त्रानुमोदित संस्कार रूप हि नहीं था। नामकरण-संस्कार के संबंध में
स्मृति-संग्रह में लिखा है -
नामकरण संस्कार कब किया जाना चाहिए ?
पाराशर स्मृति के अनुसार जन्म के सूतक में ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पंद्रह दिन में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है।
जाते विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:।
वैश्य:
पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥' -(पाराशर स्मृति)
अतः अशौच बीतने पर ही नामकरण-संस्कार करना चाहिये, इस विषय में सूत्रों तथा स्मृतियों में बालक के जन्म के दसवें दिन से लेकर दूसरे वर्ष के पहले दिन तक यह संस्कार किए जाने के पृथक् पृथक् विधान हैं। शिशु जन्म के दस दिन तक अशौच रहता है । अतः स्नान आदि से माँ एवं शिशु के पवित्र हो जाने पर, घर को धो कर स्वच्छ कर लेने पर दसवें दिन इस संस्कार का विधान किया गया। नामकरण संस्कार के समय के सम्बन्ध में मनुस्मृति (2/30) का कथन सर्वाधिक व्यावहारिक है- 'जन्म से दसवें अथवा बारहवें दिन नामकरण संस्कार करना चाहिए। अथवा अन्य भी किसी शुभ तिथि, पवित्र मुहूर्त एवं नक्षत्र में नामकरण किया जा सकता है।'ल्मीकि रामायण के समय इस संस्कार का पर्याप्त प्रचलन था। क्षत्रियों में यह संस्कार जन्म के ग्यारह दिन बीतने पर किया जाता था। मुनि वसिष्ठ ने ग्यारह दिन के बाद राजा दशरथ के चारों पुत्रों का नामकरण किया। इस संस्कार के शुभ अवसर पर दशरथ ने ब्राह्मणों और पुरवासियों को भोजन कराया और प्रचुर मात्रा में रत्नदान किया था। (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड/18/23) रामायण में कुबेर के नामकरण का भी प्रसंग आया है। ऋषि पुलस्त्य ने अपने पौत्र के भविष्य को दिव्यदृष्टि से देखकर विश्रवा पुत्र होने के कारण उसका वैश्रवण नामकरण किया।
महाभारत में अनेक स्थलों पर नाम रखे जाने का उल्लेख तो है किन्तु संस्कार के रूप में उसके विधि विधानों तथा अनुष्ठानों का कोई वर्णन नहीं है। श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न अभिमन्यु पुत्र को गोद में लेकर उसका नाम परीक्षित रखा- (आश्वमेधिक पर्व/ 70/10--12) ' अपने सारे कुल के परिक्षीण हो जाने पर यह बालक उत्पन्न हुआ है अतः यह परीक्षित नाम से पृथिवी पर प्रसिद्ध होगा। श्रीमद्भागवत (दशमस्कन्ध 8/10....14) में कृष्ण और बलराम के नामकरण संस्कार का उल्लेख हुआ है।
शिशु का नाम कैसा रखा जाए ?
इस विषय पर भी शास्त्रों में पर्याप्त विचार हुआ है। यह आवश्यक भी था। रखा गया नाम जीवन पर व्यक्ति के साथ रहता है अतः वह नाम सार्थक एवं शुद्ध होना चाहिए। नाम घृणित अथवा जुगुप्सित हो तो व्यक्ति को जीवन भर संकोच और लज्जा झेलनी पड़ती है। इसीलिए हर सूत्रकार ने अनेक
व्यवस्थाएँ दी। शिशु के नाम में कितने अक्षर होने चाहिएँ; नाम ह्रस्व स्वरान्त हो या दीर्घ स्वरान्त, पुरुष के नाममें स्त्री के नामों से क्या
भिन्नता तथा क्या विशेषता हो; विभिन्न वर्णों के शिशु के नामों से क्या क्या अभिप्राय प्रगट होना चाहिए- आदि कितने ही विवेचन गृह्यसूत्रों
में प्राप्त होते हैं। और सभी में परस्पर बहुत अधिक मतवैभिन्य है।
इस विषय में भी मनु ही सबसे अधिक व्यावहारिक और सरल व्यवस्था देते हैं.....
माङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् क्षत्रियस्य
बलान्वितम्।
वैश्यस्य
धनसंयुक्तं शूदस्य तु जुगुप्सितम् ॥
शर्मवद्
ब्राह्मणस्य स्याद् राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य
पुष्टिसंयुक्तं शूदस्यप्रेष्यसंयुतम ॥ (मनुस्मृति 2/31,32)
अर्थात ब्राह्मण का नाम मांगल्यपूर्ण, क्षत्रिय का नाम बलयुक्त, वैश्य का नाम धनवाचक होना चाहिए और शूद्र का
नाम ऐसा हो जिससे सेवा का भाव निकलता हो। चारों वर्णों के नाम के साथ एक एक उपाधि होनी चाहिए; ब्राह्मण के उपाधि नाम से शर्मा अर्थात् हर्ष, क्षत्रिय के उपाधिनाम से रक्षा, वैश्य के उपाधिनाम से पुष्टि और शूद्र के उपाधिनाम से सेवा (प्रेष्य) का
संकेत मिलना चाहिए।' मनु के इस श्लोक (2/32) की व्याख्या दूसरे प्रकार से भी हुई है कि ब्राह्मण का नाम शर्मा, क्षत्रिय का नाम वर्मा, वैश्य का नाम गुप्ता तथा शूद्र का नाम दास
में अन्त होना चाहिए।
मनु ने कन्या के नामकरण में भी कुछ विशेषताएँ वर्णित की है। तदनुसार (मनुस्मृति2/33) कन्याओं का
नाम मनोहारि होना चाहिए; कन्या का नाम ऐसा हो जो सरलता से बोला जा
सके और उस नाम का अर्थ भी एकदम स्पष्ट हो; उस नाम से क्रूरता नहीं पता चलनी चाहिए। स्त्री का नाम दीर्घ स्वर में अन्त हो और उस नाम से आशीर्वाद का भाव प्रगट
होता हो- यथा सुखदा, निर्मला, प्रभा आदि ।
नामकरण संस्कार विधि
“संक्षिप्त रूप में नामकरण संस्कार की विधि
इस प्रकार थी। “प्रसूति का अशौच दूर हो जाने पर सारे घर को
धो कर शुद्ध किया जाता था। माता और शिशु को स्नान कराके संस्कार के स्थल पर बिठाया
जाता था। तब माता अपने शिशु को पिता की गोद में देती थी। उसके पश्चात प्रज्वलित
होमाग्नि में देवताओं के लिए आहुतियाँ अर्पित की जाती थी। पिता शिशु की नाक के
समीप अपने हाथ से उसकी साँसों को स्पर्श करता था और उसके दाहिने कान में शिशु का
सुविचारित नाम कहता था”।
धर्मशास्त्र की दृष्टि से बालक के चार नाम कहे जाते थे
1. प्रथम नाम कुलदेवता से सम्बद्ध होता था, अतः यह नाम वैदिक अथवा पौराणिक देवों के नाम पर आधारित होता था। इस नाम को रखने में मूल भावना यह थी कि उत्पन्न सन्तान निश्चय ही अपने कुलदेवता की पूजक बनेगी।
2. दूसरा नाम बालक के जन्म-मास के देवता से
सम्बद्ध होता था। हर मास का एक विशिष्ट देवता निर्धारित है- यथा चैत्रमास के देवता
वैकुण्ठ हैं; वैशाख मास के देवता जनार्दन हैं आदि। मास से
सम्बद्ध देवता का नाम रखने से स्वतः ही जन्ममास तो पता चलता ही था, साथ ही उस मास के देवता के द्वारा बालक की रक्षा किए जाने का भी विश्वास
रहता था।
3. तीसरा नाम बालक के जन्म समय के नक्षत्र
से सम्बद्ध था। यथा- यदि बालक कृत्तिका नक्षत्र में पैदा हुआ है तो कार्तिक नाम
उपयुक्त था।
4. चौथा नाम लौकिक या व्यावहारिक होता था, जो आजीवन व्यक्ति के साथ रहता था। अथवा यों कहें कि यह नाम व्यक्ति के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाता था। पिता जब नवजात के कान में चारों नामों का उच्चारण कर लेता था, तो एकत्रित ब्राह्मण जन कहते थे- 'यह नाम प्रतिष्ठित है।' इसके पश्चात् पिता अपने बालक से ब्राह्मणों को प्रणाम कराता था और ब्राह्मण उसे आशीर्वाद देते थे। तदन्तर भोजन दान दक्षिणा आदि के साथ संस्कार सम्पन्न हो जाता था।
वर्तमान समय मे नामकरण संस्कार कि स्थिती क्या है।
यह इतना महत्त्वपूर्ण संस्कार होते हुए भी गत कुछ दशकों में यह संस्कार
अत्यन्त शीघ्रता से लुप्त होता जा रहा है। बच्चे का नाम पहले से सोच लिया जाता है
और उत्पन्न होने के क्षण से ही वह उसी नाम से सम्बोधित होता है। कही कही प्रसूति
का अशौच दूर होने का हवन किया जाता है और उसी समय बच्चे का नाम घोषित हो जाता है।
समाज में स्थितियाँ कितनी शीघ्रता से बदलती जा रही है। अच्छे नामचीन स्कूलों में
दाखिले के लिए पहले से पंजीकरण कराना होता है और नम्बर आने पर बच्चे को प्रवेश
दिया जाता है। इसलिए दिल्ली, बम्बई जैसे महानगरों में बच्चे का प्रसव
होने के छह आठ माह पूर्व ही विद्यालय में बच्चे का नाम लिखा दिया जाता है फिर
संस्कार किसका होगा।
फिर भी कई परिवारों-विशेषतः आर्यसमाजी
परिवारों में यह संस्कार अभी भी सूत्र ग्रन्थों के विधि विधान से सम्पन्न होता है, यह अवश्य है कि उसमें युग के अनुरूप कुछ देशाचार तथा अन्य तत्त्व अवश्य
जुड़ गए हैं। संस्कार के अतिरिक्त भी परिचितों के मिल बैठने और साथ खाने का अपना
महत्त्व होता था, जिसे भारतीय समाज भूलता जा रहा है।