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Jatkarma Samskara (जातकर्म संस्कार का महत्व )

जातकर्म संस्कार की जानकारी प्राप्त करें । (जन्म संस्कार)

जातकर्म संस्कार
    नमस्कार मित्रो आगे हमने 16 संस्कारों का परिचय प्राप्त किया, उसमें हमने गर्भाधान संस्कार ,पुंसवन संस्कार, एवं सिमन्तोनयन संस्कार के विषय में जानकारी  प्राप्त कि है । अब यहां पर आगे हम जातकर्म  संस्कार की जानकारी प्राप्त करेंगे ।
शिशु का जब जन्म होता है तब प्रसवकालीन कष्ट से परिश्रान्त माता तथा असहाय नवजात शिशु को सहायता तथा सुरक्षा की आवश्यकता होती है; अतः नए प्राणी के आगमन की स्थिति में विपत्ति तथा संकट की आशंका भी निश्चय ही हुई होगी। उस विपत्ति से बचने के लिए उसने देवों/ प्राकृतिक शक्तियों से रक्षा की प्रार्थना भी की होगी। इस प्रकार क्रमशः शिशु जन्म का यह अवसर माता एवं शिशु की सुरक्षा और स्वास्थ्य कामना से अनिवार्यतया जुड़ गया।

नवजात शिशु का यह प्रथम संस्कार है। इस संस्कार के नाम से ही इसका अर्थ स्पष्ट है- जन्म के समय किया जाने वाला कर्म । ऐतिहासिक दृष्टि से यह कर्म अत्यन्त प्राचीन है। ऋग्वेद में इसका कोई संकेत अवश्य नही है किन्तु तैत्तिरीय संहिता (2/2/5/3-4) में पुत्र जन्म पर किए जाने वाले यज्ञ (इष्टि) का वर्णन प्राप्त होता है। 

इसके अनुसार 'जब किसी को पुत्र सन्तति उत्पन्न हो तो उसे चाहिए कि वह बारह पात्रों में पकी हुई रोटी की बलि अग्नि (वैश्वानर) को समर्पित करे। इस इष्टि के सम्पन्न होने से वह उत्पन्न पुत्र पवित्रवीरधनधान्यपूर्ण एवं गौरव सम्पन्न होता है। अथर्ववेद का एक पूरा सूक्त (1/11) ही सुरक्षित एवं सहज प्रसव की प्रार्थनाओं से युक्त है । यथा-

हे पूषन् ! प्रसव के इस अवसर पर होता तेरे लिए यज्ञ करें। स्त्री के सारे सन्धिस्थान प्रसव के लिए भली प्रकार शिथिल हो जाएँ”.. जिस प्रकार द्युलोक की चारों दिशाएँ भूमि को चारों ओर से घेरे हुए हैंउसी प्रकार गर्भ भी चारों ओर दोनों ही सम्मिलित हैं और वे सभी सुरक्षित एवं सरल प्रसव से सम्बद्ध हैं। किन्तु इन प्रार्थनाओं का अर्थ जातकर्म संस्कार ही हो... यह कह सकना कठिन है। किन्तु उपनिषद् काल में इस संस्कार के विभिन्न कर्म स्पष्टतया वर्णित है। 

प्रथमतः वृहदारण्यक उपनिषद् में जातकर्म का प्रारम्भिक कर्म बताया गया है- 'जब पुत्र का जन्म होता है तब सबसे पहले उसे विमलीकृत मक्खन चटाना चाहिएफिर उसे माँ का स्पर्श कराना चाहिए।

वृहदारण्यक उपनिषद् में संस्कार का लगभग पूरा ही स्वरूप स्पष्ट हैं। संक्षेप में वह इस प्रकार है

 वृहदारण्यक उपनिषद् में संस्कार का स्वरूप ।

1.पुत्रोत्पत्ति के उपरान्त अग्नि प्रज्वलित करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक दही एवं घी से अग्नि में होमकरना चाहिए ।

2. नवजात शिशु के दाहिने कान में तीन बार 'वाक्' शब्द का उच्चारण 

3. सोने के चम्मच या शलाका से शिशु को दहीशहद और घी चटाना;

4.बच्चे के कान में उसका गुप्त नाम बतानायह नाम किसी और को नहीं बताया जाना चाहिए।

5. नवजात शिशु को माता के स्तन के पास रखना

6. पुनः माता को मन्त्रों से सम्बोधित करना।

गृह्यसूत्रों में जातकर्म संस्कार के सम्बन्ध में जो समान कर्म प्राप्त होते हैंवे इस प्रकार है

गृह्यसूत्रों में जातकर्म संस्कार विधि

होम - 

अग्नि तथा अन्य देवताओं के लिए होम किया जाता थाजिसमें दही और घी से आहुति दी जाती थी। यह होम सकुशल पुत्रजन्म पर देवताओं के प्रति कृतज्ञता सूचित करता था।

मेघाजनन -  (बुद्धि को बढ़ाना)

गृह्यसूत्रों के अनुसार पिता दहीशहद और घी को सम्मिश्रित करके सोने की शलाका से बच्चे को चटाता है। यह बच्चे की आयु और बुद्धि को बढ़ाने वाली औषधि का कार्य करता है। दहीइन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाता हैघी पशुतेज है और शहद औषधियों का रस है। स्वर्ण वातदोष को शान्त करता हैमूत्र को स्वच्छ करता है और विषनाशक होता है। शहद और है स्वर्ण के गुण शिशु के मानसिक विकास में सहायक होते हैं। यह दही चटाते समय पिता मन्त्रोच्चारण के द्वारा भूः भुवः और स्वः को बालक में स्थापित करने की भावना करता था। इस प्रतिष्ठा के द्वारा शिशु के व्यक्तित्व में विश्वात्मक अनुभूति का नियोजन होता था। तदुपरान्त पिता बच्चे के कान में 'वाक्शब्द का उच्चारण करता था। इससे सम्पूर्ण वैदिक साहित्य अभिप्रेत था। कालान्तर में मन्त्रोच्चारण की अपेक्षा घृत-मधु-दधि चटाना ही जातकर्म संस्कार का प्रमुख कृत्य बन गया है।

आयुष्य- 

यह कृत्य कुछ ही सूत्रों में वर्णित है। इसमें पिता शिशु की नाभि अथवा दाहिने कान में धीरे-धीरे सभी दीर्घजीवी वस्तुओं के नाम लेता हुआ उस शिशु की दीर्घायुष्य की कामना करता था। यथा अग्नि दीर्घजीवी है- वह वृक्षों में दीर्घजीवी है। मैं इस दीर्घ आयु से तुझे भी दीर्घजीवी करता हूँ। आदि।

नामकरण- 

लगभग सभी प्रमुख सूत्रकारों ने शिशु जन्म के ही दिन जन्मनक्षत्र के अनुसार बच्चे का एक गुप्त नाम रखने की व्यवस्था की हैजिस नाम को उपनयन संस्कार होने तक केवल माता-पिता ही जान सकते हैंअन्य कोई नहीं। वास्तविक नाम जन्म के दसवें दिन रखा जाना चाहिए।

भूतप्रेत निराकरण- 

विभिन्न प्रकार के मन्त्रों के द्वारा अनेक प्रकार के उन भूत प्रेतों को शिशु से दूर किया जाता था जो उस पर आक्रमण कर सकते थे। आपस्तम्ब ने इसके लिए सरसों के दानों और धान्य की मूसी को अग्नि में तीन बार डालने की व्यवस्था की है। इसके धुएँ से भूतप्रेत दूर जाने की भावना होती थी।  

 महाभारत में अनेक प्रमुख चरित्रों के जन्म पर जातकर्म संस्कार किए जाने का उल्लेख है। प्रत्येक स्थल पर विशेष विवरण अथवा विस्तार तो नहीं मिलता किन्तु जातकर्म संस्कार किया गया यह अवश्य उल्लिखित है।

शान्तनु पुत्र भीष्म ने धृतराष्ट्रपाण्डु और विदुर का जन्म होने पर स्वयं जातकर्म संस्कारादि सम्पन्न कराए (आदि पर्व)

वनपर्व में सावित्री उपाख्यान मिलता है। सावित्री का जन्म होने पर उनके पिता ने अपनी पुत्री का जातकर्म संस्कार किया (वनपर्व/293/23 ) 

श्रीमद् भागवत में भी कृष्ण के जातकर्म संस्कार का वर्णन हुआ है।  

भारतीय ऋषियों ने जब जातकर्म संस्कार का विधान किया थातो इसके पीछे अत्यन्त सुविचारित महत्व स्थापित था। इस संस्कार में पिता के द्वारा शिशु के उत्तमरोगरहित तथा शतायु होने की कामना तो थी हीसाथ ही बालक के तीव्र मेधा सम्पन्न होने की प्रक्रिया भी निहित थी। किन्तु समय के प्रवाह में इस संस्कार में से संस्कृति का अंश लुप्त हो गयाआजकल प्रसूति अधिकांशतः अस्पताल में होने लगी हैअतः इस संस्कार का अवसर ही नहीं रहा।

सूत्रों तथा धर्मशास्त्रों में शिशु जन्म पर अन्य किसी संस्कार की चर्चा नहीं है किन्तु वर्तमान काल में पाँचवे अथवा छठे दिन 'छठीनामक कृत्य अवश्य प्राप्त होता है। यह कृत्य लोक में सम्भवतः पुराणकाल में प्रचलित हो गया। इस कृत्य में मुख्य कर्म है षष्ठी देवी की पूजा आराधना। षष्ठी देवी शिशुओं की दीर्घ आयुस्वास्थ्य तथा शुभ सम्पन्न करने वाली देवी मानी जाती है।

छठी पूजन का वर्तमान स्वरूप कुछ इस प्रकार होता है- शिशु जन्म के पाँचवे या छठें दिन स्वच्छ की गई भूमि पर रोली या गोबर को लीप कर उस पर अक्षत बिखेर दिए जाते हैं। गणेशभगवती दुर्गा और षष्ठी देवी का आवाहन करके षोडषोचार से उनकी पूजा की जाती है। शिशु तथा माता के स्वास्थ्य की कामना की जाती है। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी जाती हैभोजन कराया जाता हैपरिवार जन नृत्य गीत से उल्लासित होते है। ये सारे आयोजन भूतप्रेत भगाने तथा बुरे प्रभावों से शिशु की रक्षा के लिए होते हैं। क्रमशः बुरेनक्षत्रों के प्रभाव और दुष्टात्माओं के आक्रमण से बचने की यह मर्यादा इतनी बढ़ा दी गई कि माता और शिशु वालीस दिनों तक घर में रखनेतरह-तरह के गण्डे-ताबीज बाँधने और अन्य अनेक अन्धविश्वासपूर्ण टोटके ही प्रमुख हो गए है। गाँव घरों में आज भी बहुत कुछ यही अवैज्ञानिक रूढ़ियाँ चली आ रही हैं।

इस प्रकार यहां पर हमने शास्त्रों में वर्णित जातकर्म संस्कार के विषय में जानकारी प्राप्त की । प्रारंभ से लेकर वर्तमान समय में चली आ रही प्रणाली को भी देखा। और जातकर्म संस्कार का क्या महत्व है । क्यों  यह संस्कार जरूरी है ।  यह सभी जानकारी  अन्य लोगों को भी प्राप्त हो अतः इस पोस्ट को आप जरूर शेयर करें ।

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