कर्णवेध संस्कार
आगे हमने जातकर्म संस्कार के बारेमे जानकारी प्राप्त कि है । आज हम कर्णवेध संस्कार के बारेमे जानकारी प्राप्त करेङ्गे ।
कर्णवेध का सीधा सा अर्थ है बच्चे के कान छिदवाना। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य बच्चे को स्वस्थ रखना है। आधुनिक एक्यूपंक्चर पद्धति के अनुसार, यह संस्कार कई रोगों को रोकने में मदद कर सकता है, आभूषण पहनने से शरीर की सुंदरता भी बढ़ती है। शास्त्रों में जिस व्यक्ति को छेद न किया गया हो उसे श्राद्ध आदि धार्मिक कार्यों में अधिकारी नहीं माना गया है।
इस संस्कार का नाम ही इसके अर्थ को स्पष्ट कर देता है। चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से सुश्रुत (शरीर स्थान- 19-21) ने कहा है कि कान के निचले स्थान को सुई से छेद देने पर आन्त्रवृद्धि (हर्निया) का रोग नहीं होता। सुश्रुत ने ही यह निर्देश भी दिया है कि शिशु की स्वास्थ्य रक्षा के लिए और सौन्दर्यवृद्धि (आभूषण पहनने के द्वारा) के लिए बालक के दोनों कान छिदने चाहिए।
बालक के जन्म के दसवें, बारहवें अथवा सोलहवें दिन यह संस्कार सम्पन्न करना चाहिए। इस समय बालक के अंग अत्यन्त कोमल होते हैं और यह संस्कार सुगमता से हो जाता है। कान को बेधने का काम प्राय: कोई चिकित्सक अथवा सुनार करता था। परिवार की सामर्थ्य के अनुसार कान बेधने की सुई सोने, चाँदी अथवा लोहे की हो सकती है। एक उल्लेख के अनुसार क्षत्रिय के लिए सोने की, ब्राह्मण तथा वैश्य के लिए चाँदी की तथा शूद्र के लिए लोहे की सुई का प्रयोग करना चाहिए। इस संस्कार के दौरान निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है।
कर्णेभिः
श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवां
सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ।।
कभी भी
परीक्षा करके देखिए। यदि बच्चे के कान की निचली लौ (हिस्से) को थोड़ा खींच कर
उसमें से सूर्य की ओर देखा जाए तो उसमें एक छिद्र जैसा स्पष्ट दिखाई देता है। 'सुश्रुत संहिता' का कथन है कि चतुर वैद्य अपने बाएँ
हाथ से बालक के कान के निचले हिस्से को खींचकर सूर्यकिरणों से प्रकाशित देवकृत
छिद्र को सावधानी से बींध दे। ऐसा माना जाता है कि कानों के छिद्र से प्रवेश करके
सूर्य की किरणें बालक या बालिका को तेज सम्पन्न करके पवित्र कर देती है। देवल
स्मृति ने स्पष्ट कहा है कि जिस व्यक्ति के कर्णरन्ध्र में सूर्य की किरणें
प्रविष्ट नहीं हो पाती, उसको देखते ही सारे पुण्य नष्ट हो
जाते हैं। यदि कर्णवेध संस्कार न किए गए ब्राह्मण को श्राद्ध में निमन्त्रित कर
लिया जाए, तो निमन्त्रित करने वाला व्यक्ति असुर हो जाता है-
'तस्मै श्राद्धं न दातव्यं, यदि चेदसुरं भवेत् ।
वैदिक ग्रन्थों में कर्णवेध संस्कार का कोई उल्लेख नहीं है। निरुक्त (2/4) में एक स्थल पर कर्णवेध क्रिया का एक प्रसंग अवश्य है किन्तु वह संस्कार के रूप में नहीं है। अधिकांश गृह्यसूत्र भी इस संस्कार के विषय में मौन है। सम्भवतः पर्याप्त परवर्ती समय में कर्णवेध को संस्कार के रूप में मान्यता मिली हो, क्योंकि लगभग सभी स्मृतियों में इसका वर्णन उपलब्ध है।
इस संस्कार का संक्षिप्त स्वरूप कुछ इस प्रकार था। निर्धारित दिवस पर प्रातः काल शिशु को स्नान कराके नए वस्त्र पहना दिए जाते हैं। तत्पश्चात माता शिशु को गोद में लेकर कर्णवेध के स्थान पर लाती है। ईशस्तुति करके वैद्य या सुनार कर्णवेध करता था। लड़के का पहले दायाँ कान और फिर बायाँ कान बेधा जाता था और लड़की का पहले बायाँ और फिर दायाँ कान छेदा जाता था। यह छिद्र पक न जाए इसलिए उसमें तेल लगाया जाता था। वैद्य अथवा सुनार को धनराशि तथा वस्त्रादि देकर सन्तुष्ट किया जाता था। भगवान् को भोग लगाकर प्रसाद दिया जाता है।
कान छिदवाने
के बाद कान और नाक पर सोने के आभूषण पहने जाते हैं। इस क्रिया के पीछे एक बड़ा
विज्ञान है। नाक और कान छिदवाने से मस्तिस्क में रक्त संचार आसान हो जाता है,
जिससे प्रत्येक कोशिका को रक्त प्राप्त करना आसान हो जाता है। नाक
के आभूषण पहनने से सांस लेने में आसानी होती है और नाक के रोगों से बचाव होता है।
मासिक धर्म नियमित होता है, खासकर अगर महिलाएं कान के गहने
पहनती हैं। इसमें पहने जाने वाले आभूषण भी अधिक लाभकारी होते हैं यदि वे सोने के
बने हों। यदि सूर्य की किरणें नथुनों से होकर गुजरती हैं, तो
बच्चा उज्ज्वल हो जाता है।